Abstract:
शोध प्रबंध “हिन्दी की स्त्री आत्मकथाएँ : अस्मिता विमर्श” विषय पर तैयार किया गया है। इसमें अस्मिता विमर्श की दृष्टि से मन्नू भण्डारी, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, रमणिका गुप्ता, अमृता प्रीतम, कौशल्या बैसंत्री, सुशीला टाकभौरें, बेबी कांबले तथा उर्मिला पवार की आत्मकथाओं को केंद्र में रखकर, अस्मिता विमर्श के विभिन्न पक्षों पर शोधपरक अध्ययन-विश्लेषण किया गया है।
विमर्श के विभिन्न पक्षों को नवीन दृष्टि से देखते हुए, चयनित स्त्री आत्मकथाओं को दलित एवं गैर-दलित लेखिकाओं की कोटि में रखकर इनके बीच समानता और अंतर के बिंदुओं को रेखांकित करने की कोशिश हुई है।
“हिन्दी की स्त्री आत्मकथाएँ : अस्मिता विमर्श” शीर्षक शोध में चयनित स्त्री आत्मकथाओं के गहन अध्ययन एवं विश्लेषण से कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष सामने आए हैं। इनमें मुख्य हैं – क) आत्मकथा विधा के रूप में समकालीन स्त्री जीवन और स्त्री अभिव्यक्ति को समझने के लिहाज़ से सर्वाधिक उपर्युक्त विधा है। ख) अस्मिता विमर्श से जुड़ी चिंताओं व मुद्दों को संदर्भित स्त्री आत्मकथाकारों ने अपने कड़वे व तीखे अनुभवों के साथ सधी भाषा-शैली में अभिव्यक्त किया है। ग) दलित और गैरदलित कोटियों में विभाजित करके देखने से स्पष्ट हुआ है कि दोनों वर्गों की स्त्रियाँ कुछ संदर्भों में समान रूप से वंचना, अपमान व शोषण की शिकार हुई हैं तो कुछ संदर्भों में शोषण व पीड़ा जातिगत भिन्नताओं की वजह से अलग क़िस्म की रही है। घ) संपूर्णता में स्त्री स्वाधीनता के प्रश्न पहले की अपेक्षा अधिक मुखरता और स्पष्टता के साथ लेखन में दर्ज़ हुए हैं। च) स्त्री जीवन के सपने व उनके संघर्ष पुरुष जीवन के सपनों और संघर्षों से अलग होते हुए भी मनुष्य के धरातल पर साझा हो जाते हैं।
अंत में यह बताने की कोशिश की गई है कि बदलते समय के साथ स्त्री केवल किसी की माँ, पत्नी, और बेटी बनकर नहीं रहना चाहती बल्कि अपनी अलग पहचान भी चाहती हैं। स्त्री लेखिकाएँ यह भी बताना चाहती हैं कि केवल आर्थिक रूप से मुक्त होने पर ही स्त्री मुक्त नहीं होंगी बल्कि इसके लिए वैचारिक स्तर पर भी सचेत होना आवश्यक है।
प्रस्तुत शोध रुढ़िगत विचारों को छोड़कर स्त्रियों के महत्त्व को स्वीकार करने हेतु अपील करती है।