Abstract:
आदिवासी साहित्य लेखन दो-तीन दशकों से नहीं, बल्कि लगभग सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले से लिखा जा रहा है। आदिवासी चिंतन का मुख्य पहलू प्रकृति की रक्षा और जीव-जगत के अस्तित्व से संबंधित है। अपनी तीव्र इच्छापूर्ति के कारण मनुष्य ने प्रकृति का अत्यधिक दोहन किया। आदिवासी क्षेत्रों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई जिससे आदिवासी बड़ी मात्रा में विस्थापन के शिकार हुए और उनके साथ रहने वाले पशु-पक्षी, पेड़-पौधे भी उजाड़े गए। वस्तुतः आदिवासी समाज एक ऐसा समाज है जो मात्र मनुष्य समुदाय के बारे में नहीं सोचता है, बल्कि उसके चिंतन में समस्त प्राणी-जगत (जड़-चेतन) विद्यमान है और उन सबको साथ लेकर चलता है। आदिवासी समुदाय सामुदायिकता, समानता, सहभागिता, सहजीविता और सहअस्तित्व पर मजबूती से विश्वास करता है और ये पाँच तत्व उनके लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधारिक स्तम्भ हैं। उनकी स्वतंत्र और स्वशासी लोकतंत्र महज एक व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक संस्कृति है। लोकतंत्र की यह संस्कृति भारत के अतिरिक्त विश्व के समस्त आदिवासी समुदायों में देखा जा सकता है जिसकी रक्षा के लिए वे सदियों से संघर्ष कर रहे हैं। यह समस्त संसार प्रकृति द्वारा निर्मित है। प्रकृति के साथ रहकर आदिवासियों ने अनुभव किया कि प्रकृति मनुष्य के बिना जीवित रह सकती है, लेकिन मनुष्य प्रकृति के बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता है। यही कारण है कि आदिवासी जल, जंगल, जमीन से अपना अटूट संबंध मानते हैं और मात्र संबंध नहीं, बल्कि अपना अधिकार मानते हैं। वे आत्मनिर्णय के अधिकारों का दावा करने और अपनी भूमि, संस्कृति तथा पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने का प्रयास करते हैं जो विश्व के समस्त प्राणी-जगत के लिए अत्यंत आवश्यक है। आदिवासी समुदायों के अधिकारों का सम्मान करना तथा पारंपरिक ज्ञान को केंद्र में रखकर प्रकृति और मनुष्य के बीच संतुलन बनाए रखना आदिवासी साहित्य का उद्देश्य है।