Abstract:
सिनेमा में दलित चेतना की अभिव्यक्ति अधिक सशक्त रूप में 1990 के बाद दिखाई देती है । मुख्यधारा के सिनेमा में वंचित तबके का दखल और उसकी भूमिका पर बात करें तो प्रभावी अभिव्यक्तियाँ कम भले हों, पर मिलती अवश्य हैं । सिनेमा लोक का प्रतिनिधित्व करता है और हिन्दी सिनेमा में भी अनेक स्थानों पर सभी वर्गों को व्यापक प्रतिनिधित्व मिलने लगा है । हिंदी सिनेमा में आजादी के पहले हाशिये के समाज को लेकर जो फिल्म बनी उसमें ‘अछूत कन्या’ और ‘अछूत’ प्रमुख हैं । इन फिल्मों के बाद आंदोलित करने वाले विषयों पर काफी समय तक कोई फिल्में नहीं बनी ।
इसके बाद 40 के दशक में अधिकांश फ़िल्में देशभक्ति, चरित्र आख्यान और मनोरंजन पर ही केन्द्रित रही । एक लम्बे अन्तराल के बाद विमल राय ने ‘सुजाता’(1959) फिल्म बनाई । कुछ प्रमुख दलित फिल्मों को देखें तो- ‘परख’(1960), ‘अंकुर’(1974), ‘मंथन’(1976), ‘दामुल’(1985), ‘भीम गर्जना’(1990) आदि फिल्मों का निर्माण हुआ । इनमें से ज्यादातर फ़िल्में दलितों की व्यथा को ही व्यक्त करती हैं, जिसमें दलितों को असहाय निरक्षर, शोषित, पीड़ित, लाचार दिखाया गया है । लेकिन अब स्थिति कुछ बदल चुकी है ।
आठवें –नौवें दशक में प्रकाश झा, गोबिंद निहलानी, सईं परांजपे, जब्बर पटेल, कुंदन शाह जैसे फ़िल्मकार सामने आते हैं । इन फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में दलित जीवन को बड़ी ही संजीदगी के साथ परदें पर दिखाया । प्रकाश झा ने ‘दामुल’ और ‘आरक्षण’ जैसी फ़िल्में बनाई जिनमे दलित जीवन सशक्त रूप में मुखर हुआ है ।
बीसवीं शताब्दी की कुछ बेहतरीन फिल्मों की बात की जाए तो जिसमें बहिष्कृत, शोषित, उपेक्षित हाशिये की समाज को गहन संवेदना और कलात्मकता के साथ चित्रित किया है, उनमें ‘सद्गति’, ‘तर्पण’, ‘बवंडर’, ‘शुद्रा- द राइजिंग’ प्रमुख हैं । इन फिल्मों में दलित समस्या को प्रमुखता से जगह दी गई है । जाति के कारण उत्पीड़ित स्त्री की महागाथा के रूप में फूलन देवी की जिन्दगी पर शेखर कपूर ने ‘बैंडिट क्वीन’ फिल्म बनाई । यह एक क्लासिक फिल्म मानी जाती है । गाँव की जाति प्रधान व्यवस्था स्त्री की उत्पीड़न को मूकदर्शक बनकर देखती है और एक दिन स्त्री को हथियार उठाने के लिए विवश कर देती है ।
इक्कीसवी शताब्दी में सिने तकनीक में क्रान्तिकारी बदलाव तो हुआ ही साथ ही फिल्म निर्माण के क्षेत्र में वित्तीय व्यवस्था के कई स्त्रोत खुल गए, जिससे नए फिल्मकारों को सामने आने का मौका मिला । अब कम बजट में भी बेहतरीन फ़िल्में बनती है और उन विषयों पर भी जिन पर पहले सोचा भी नहीं जा सकता था । जैसे मराठी में ‘फेंड्री’(2013) और ‘सैराट’(2016) हिंदी में विधु विनोद चोपडा की ‘एकलव्य’(2007), ‘चौरंगा’(2014), नीरज घेयवान की ‘मसान’(2015), आर्टिकल 15(2019) आदि अनेक फ़िल्में हैं, जो जातिगत भेदभाव और ऊँच-नीच के सामाजिक संघर्ष को पूरी कलात्मकता के साथ दिखाता है ।